Thursday, December 29, 2011

दून रत्न’ ‘कँवल ज़ियाई’ - श्री हरदयाल सिंह दत्ता





प्रिये सम्मानित साथियो ,
मोहयाल मित्र सभा ने निर्णय लिया था कि हम ऐसे महान हस्तियों के नामो की यादों को ताजा करेंगे जो आतीत के पन्नों मै कही खो सी गयी हैं | उसी श्रेणी मै हम सब से पहले नमन करते हैं
"दून रत्न’ ‘कँवल ज़ियाई’ - श्री हरदयाल सिंह दत्ता" जी का |
~हमारा खून का रिश्ता है सरहदों का नहीं, हमारे जिस्म में गंगा भी है चनाब भी है~
इस संसार में यदा कदा ही ऐसे लोगों का आना होता है जो अपनी मिसाल आप होते हैं ,कला एवं साहित्य जगत ऐसे लोगों का हमेशा ॠणी रहता है ऐसी ही एक हस्ती का ज़िक्र आज हम करने जा रहे हैं पिछले कई दशकों से उर्दू साहित्य के आकाश पर प्रद्दीप्त इस हस्ती को हम ,’कँवल’ ज़ियाई" के नामे नामी से जानते पहचानते हैं आइये उन के बारे में कुछ और जानें.
ज़मींदारी वैभव में पले श्री हरदयाल सिंह दत्ता के लिए अभी दुनिया को जानने समझने का समय आया ही था कि देश के बटवारे के रूप में घटी इस सदी की महानतम घटना ने उन्हें अपना जन्म स्थान सियालकोट छोड़ने पर मजबूर कर दिया इस त्रासदी के शिकार करोड़ों लोगों के सामने अनिश्चित भविष्य था और अपनी मिट्टी से कट जाने का दुःख भी, अपने पुरखों की धरती को छोड़ कर अनजाने देश में अनजाने लोगों के बीच अपने पैर जमाने की कोशिश करते और अपना भविष्य तलाशते अनगिनत लोग, उस ज़माने के हरदयाल सिंह दत्ता जिन्हें आज हम ‘कँवल’ज़ियाई के नाम से जानते हैं,लोगों की इसी भीड़ का एक हिस्सा बन कर सरहद के इस पार आ तो गए लेकिन ‘कँवल ज़ियाई’ इस भीड़ का हिस्सा बन कर रह जाएँ ये न तो कंवल ज़ियाई को ही मंज़ूर था और न विधाता को. http://kanwalziai.com/

घोर संघर्ष के उन दिनों में आपके जिगरी दोस्त और बचपन के हमजोली पद्मश्री राजेन्द्र कुमार ने आप को अपने साथ मुंबई चलने का सुझाव दिया लेकिन आप ने अपने लिए फ़ौज में जाने का विकल्प चुना राजेन्द्र कुमार मुंबई जा कर फ़िल्मी दुनिया के आकाश पर छा गए और बेहद कामयाब हुए आज भी उन्हें सफल फिल्मों की संख्या के आधार पर जुबिली स्टार के तौर पर याद किया जाता है यहां ये बात खास तौर पर क़ाबिले ज़िक्र है कि ज़बरदस्त मसरूफ़ियत और बेपनाह कामयाबी के दौर में भी ‘कंवल’ साहेब से उन के रिश्ते न सिर्फ बरकारार रहे बल्कि बचपन की दोस्ती की खुशबू उन्हें अपने मित्र से मिलने के लिए मजबूर करती रही और वो इस रिश्ते को निभाने के लिए अक्सर देहरादून आते रहे , तो-कँवल साहेब अपनी पारिवारिक जिम्मेदारी का निर्वाह करने के लिए फ़ौजी हो गए और अपने शौक़ के तकाजों को पूरा करने के लिए शायर बन कर जिंदगी की जुल्फें संवारने में मसरूफ़ हो गए, अपने 50-55 वर्षों के सहित्यिक सफ़र के दौरान आपने उर्दू शायरी के माध्यम से समाज को अपनी उत्कृष्ट सेवाएं दीं हैं,विश्व बंधुत्व, सामाजिक समरसता ,स्वाभिमान और उच्च नैतिक आदर्शों को समाज में प्रतिष्ठा दिलाने में कोई कसर नहीं रक्खी, आप की शायरी मुल्क की सरहदों के पार दुनिया के बाशिंदों तक भी पहुँची ,पकिस्तान की मशहूर समाज सेविका ज़किया जुबैरा का ख़त हो या अल्ताफ़ हुसैन का, जो इस वक्त लन्दन में रह कर मुहाजिरों के हक़ की लड़ाई लड़ रहे हैं साफ़ ज़ाहिर होता है कि वो लोग कँवल साहेब की शायरी से कितने प्रभावित हुए अल्ताफ़ साहेब ने तो अपने खत में ख़ास तौर पर उस शेर का ज़िक्र किया जो दुनिया के उन तमाम लोगों की पहचान बनता जा रहा है जो अपने हक़ के लिए आवाज़ बुलंद कर रहे हैं
हमारा दौर अंधेरों का दौर है -लेकिन हमारे दौर की मुट्ठी में आफताब भी है
आपकी प्रतिभा के प्रति विशेष सम्मान प्रकट करते हुए तत्कालीन राष्ट्रपति महामहिम शंकर दयाल शर्मा ने आप को राष्ट्रपति भवन में आमंत्रित किया, आप की शायरी की पहली पुस्तक ‘लफ़्ज़ों की दीवार’ का विमोचन भी राष्ट्रपति महोदय के कर कमलों से हुआ


उत्तरांचल राज्य के प्रथम राज्यपाल श्री सुरजीत सिंह बरनाला तक भी आप की शायरी की महक पहुँची , ‘उत्तरांचल की धरती’ नामक एक विस्तृत और प्रभावशाली नज़्म राज भवन में आयोजित एक समारोह में महामहिम राज्यपाल महोदय को भेंट की गयी ,
सिटिजं’स फोरम ने आप को ‘दून रत्न’ की उपाधि से नवाजा ,अखिल भारतीय मुशायरों में आप को ख़ास तौर पर आमंत्रित किया जाता रहा है, रेडियो टी.वी के कार्यक्रमों में सक्रिय भागीदारी के साथ देश की प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं में आप के कलाम का ख़ास हिस्सा रहा है, साहित्यिक संस्था ‘दून कलम संगम’ के आप संस्थापक अध्यक्ष और ‘बज़्मे जिगर’के उपाध्यक्ष के रू प में आप सक्रिय रहे,
आइये कँवल साहेब की शायरी के बारे में कुछ और जानते हैं ,आप की शायरी और शख्सियत का एक ख़ास हिस्सा रही आपकी खुद्दारी और स्वाभिमान( इसी स्वाभिमान ने आप को ज़िंदगी भर स्टेज की शायरी और लटकों झटकों से दूर रक्खा ) शेर सुनिए…
चंद साँसों के लिए बिकती नहीं खुद्दारी
ज़िंदगी हाथ पे रक्खी है उठा कर ले जा
एक शेर जो बहुत ज़ियादा चर्चा में आया विश्व बंधुत्व की बेमिसाल तस्वीर है…
हमारा खून का रिश्ता है सरहदों का नहीं
हमारे जिस्म में गंगा भी है चनाब भी है
(चनाब -एक मशहूर नदी जो अब पकिस्तान में है )
और इसी जज्बे की अक्कासी इस शेर में देखिये…
ज़माने को लहू पीने की लत है
मगर फिर भी यहां सब ख़ैरियत है
हमारा घर बहुत छोटा है-लेकिन
हमारा घर हमारी सल्तनत है
स्वाभिमान की इसी भावना के चलते ये अलबेला शायर आम आदमी से जुड़े शेर कहता रहा ज़ाहिर है सत्ता के गलियारों में ऐसे शेर न सिर्फ अवांछित थे, बल्कि सत्ता प्रमुखों को कभी रास आ ही नहीं सकते थे ,जैसे ये शेर…
जिस में छुपा हुआ हो वुजूदे गुनाहों कुफ्र
उस मो’तबर लिबास पे तेज़ाब डाल दो
और सत्ताधीशों की इनायत न हो तो कलाकार के हिस्से में गुमनामी ही आती है ,इसलिए ये कोई अचरज की बात नहीं कि इतने प्रतिभा संपन्न और अलग सोच रखने वाले शायर को समाज में वो जगह नहीं मिली जिस का वो सही तौर पर हकदार था ,खुद ‘कंवल’ साहेब के लफ़्ज़ों में…
हम को गुमनामियों ने मार दिया
लोग लिक्खे गए मिसालों में
और आख़िर में अगर ये कहा जाए कि ‘कंवल’ साहेब अब हमारे बीच नहीं रहे, तो शायद बहुत से लोग अंदर से टूट-टूट जायेंगे क्योंकि किसी ‘हरदयाल सिंह दत्ता’ का दुनिया से जाना यक़ीनी तौर पर बहुत दुखदाई होता है, लेकिन किसी ‘हरदयाल सिंह दत्ता’ का ‘कँवल ज़ियाई’ बन कर दुनिया से उठ जाना बहुत से लोगों से उनके वुजूद का एक हिस्सा छीन लेता है,‘कँवल ज़ियाई’(जन्म 15 मार्च 1927, निधन 28 अक्टूबर 2011 )
प्रकाशित कृतियाँ
  • ‘प्यासे जाम’ ( सन 1973–देवनागरी लिपि में)
  • ‘लफ़्ज़ों की दीवार ‘ (सन 1993 –उर्दू लिपि में)
शीघ्र प्रकाश्य
  • ‘कागज़ का धुँआ’
  • ‘धूप का सफ़र’
साभार:
‘अंबर खरबन्दा’ http://kanwalziai.com/
उनकी उर्दू गज़ल एवम अन्य रचनायों के लिए ....आप इस लिंक पर जा सकतें हैं http://kanwalziai.com/